Tuesday, March 17, 2015

पर तुम क्यों स्येयां अभी तक उत्तराखण्डी?

जागी गयो बदरीनाथ, जागी गे मेरो केदार

जागी गयो नरसिंह देव, जागी गे बागनाथ।

तुम क्यों स्येंयां अभी तक वीर उत्तराखण्डी ?


माता नैना जागी गेयी, जागी माॅं नंदा देवी

जागी गैना काल भैरव, जागी गे सुरकंडा।

पर तुम क्यों स्येयां अभी तक वीर उत्तराखण्डी?


जागी सभी देवी देवता, जागी पाडंव ग्वेल

जागी गैनी देवभूमि बीजी गैन डांडी कांठी।

पर तुम क्यों स्येयां अभी तक उत्तराखण्डी?


जागी गेना  मनखी जीव जागी सूर्य चंद्र।

गंगा यमुना वीजी गैयी, बीजी गे पोथुला।

पर तुम क्यों स्येयां अभी तक वीर उत्तराखण्डी?


क्वें नेता नौकरशाह यख चंगैज बणी गेना।

क्वे पंच पधान, स्वयंसेवी बणी बजट डकारी

सरकार में बेठी करी ये बणियां च गलदार

स्कूल अस्पताल बांज यख, बेची गाड गदेरा

आपदा को बजट खाई डकारी देवी देवता।।


जन्मभूमि की रक्षा वास्ता उठो उत्तराखण्डी

सर्वभक्षी कालनेमियों का दंश से येतें बचो

जातिवादी क्षेत्रवादी भ्रष्टाचारी यूं कालनेमी

बचो प्यारी जन्म भूमि बचो पुरखों की धरती।।


शराब को गटर बणे के योन मचाईं तबाही।

बांध बाघ से यों ल उजाडी मेरी देवभूमि।।

धरती माता बेची कर सरकार बणी गलदार

राजधानी गैरसैंण छोडी यूं देहरादून बसियां।।


पर तुम क्यों स्येयां अभी तक वीर उत्तराखण्डी?

जागी जाओ मेरा वीरों अपनी जन्मभूमि बचावा।

स्योंण को यू समय नी च कुम्भकरण न बणों।

अपनी जन्मभूमि तें अब यन गलदारों से बचो।।


-देवसिंह रावत

(15 मार्च 2015, प्रातः 9.57 )

हर कालनेमी कोे यही पैगाम हमारा


हर कालनेमी कोे यही पैगाम हमारा

कभी पूरा नहीं होगा सपना तुम्हारा।

मुंह में राम पर पीठ पर छूरी चलाये

भोली सूरत बना करजग मूर्ख बनाये।

झूठ पर झूठ बोले ये हैं षडयंत्रकारी

देखों साथियों से भी ये करे गद्दारी ।

इसको देख कर शुतुमुर्ग भी सरमाये

घडियाली आंसू से ये सबको भरमाये।।

भ्रष्टाचार मिटाकर राम राज लायेंगे

सब्जबाग दिखाकर ये कुर्सी कब्जाये।।

कुर्सी मिलते ही ये ऐसा राग अलापे

जनसेवक बन जम कर मौज उडाये।।


-देवसिंह रावत
(14 मार्च 2015 प्रात 8.48 बजे)


उनकी राहों के कांटे भी फूल बन जाते हैं

जिनकी नियत साफ और दिल में ईमान हो


उनकी राह में फूल भी कांटे बन जाते हैं

जो मुंह में राम बगल में छूरी रखता है।


कालनेमी  उस मक्कार धूर्त को कहते हैं

जो अपना बन कर छल प्रपंच करता है।


Sunday, August 17, 2014

मैं  ही श्रीकृष्ण कन्हैया हॅू


 मैं अजर अमर अविनाशी हूॅ
हर घट घट का वासी हॅू
कोई मनाये जन्म दिवस तो
में ही श्रीकृष्ण कन्हैया हॅू।
कोई मुझे शिव रूप में भजता
उसको हम कैलाशवासी हैं।
कोई जगदम्बे रूप में ध्याये
उसके भवन माॅं भवानी हैं। 
सभी रूपों में मैं हॅू अविनाशी
भेद समझना नासमझी है।
सकल सृष्टि में लय प्रलय कर
मैं ही सर्वेश्वर आदि अनादि हॅू। 
मैं मथुरा में, मैं ही काशी में
मैं ही जड़ चेतन का वासी हॅू। 
मुझसे कुछ अलग नहीं सृष्टि में,
मुझमें ही जीवन मृत्यु मुक्ति है। 


-देवसिंह रावत
(भगवान श्रीकृष्ण प्रकटोत्सव पर प्रातः10 बजे कर 8 मिनट पर श्रीकृष्ण कृपा वाणी  )




















हसरत पूरी करते हैं श्रीकृष्ण

जिसने सर पर श्रीकृष्ण का आशीर्वाद रहता
उनकी हर हसरत पूरी होती इस दुनिया में।
यह केवल ख्याली लफाजी नहीं मेरे दोस्त
श्रीकृष्ण ने हर सपने जीवन में पूरे किये मेरे।
किन शब्दों में धन्यवाद करूं में परमेश्वर का
उनकी कृपा से तो चमन आबाद है मेरा।।
नहीं है जीवन में कोई शिकायत कन्हैया से
मुझे चाहत नहीं किसी दौलत व शौहरत की । 
कृष्ण कृपा के बिना मेरा अस्तित्व नहीं जग में
मैं तो हॅू ही नहीं,  हैं वही  हर कण कण में। 
जब से कृष्ण सागर में गोता लगाया है मेने
तब से दुनिया को श्रीकृष्णमय ही मेने पाया।।

-देवसिंह रावत 
(श्रीकृष्ण कृपा से जन्माष्टमी के पावन पर्व पर 17 अगस्त की रात 10.36 बजे)

Saturday, February 8, 2014

ऐसी दिव्य कृपा श्रीकृष्ण की  

न कर वफा की उमीद इस बेबश जमाने से 
ये बेचारे तो खुद सांस भी न ले सकते है। 
मुर्दे हैं ये खुद अपनी अंधी वासनाओं के 
ये खाक वफा निभा सकेंगे जग में कभी 
चाहत है जीवन में बसंत की मेरे साथी
सबसे मिल जुल कर हंसना सीख लो। 
बरसेगी ऐसी दिव्य कृपा श्रीकृष्ण की
पतझड में भी बहेगी बसंत की बहार

-देवसिंह रावत (9 फरवरी प्रातः 9.15 बजे)

Thursday, January 16, 2014

किसका नव, ये कैसा नव  वर्ष है ?


किसका नव और कैसा ये नव  वर्ष है ?
जग को गटर बनाने का अंधा जश्न है 
नव वर्ष के नाम पर कैसे बेषर्मी से 
चारों तरफ सुरा सुन्दरी का दौर है। 
एक तरफ जश्न में दौलत लुटाते है ं
दूसरी तरफ करोडों लोग भूखे नंगे हैं
अपनी भाषा, नाम, वर्ष, संस्कृति छोड़
फिरंगी बन ‘हेपी न्यू इयर’ कह रहे हैं?

देवसिंह रावत 
(1 जनवरी 2014 प्रातः 9.32 बजे)
त्रिशंकु का दर्द व दिल्ली का रास्ता

दिल्ली का रास्ता 
भले ही किसी चंगेज 
या फिरंगी के लिए 
दिल से निकला होगा साथी।।

पर अपना गांव छोड
शहर में बसे आदमी का रास्ता
किसी के दिल से नहीं 
मजबूरी में ही निकला है साथी ।।

कोई रोजी रोटी के लिए
कोई शिक्षा के लिए 
कोई इलाज के लिए 
तो कोई सपनों को 
साकार करने के लिए 
कोई जीने के लिए 
अपने घर से मजबूरी में
घर छोड कर निकला होगा साथी।

आज इन्हीं मजबूर लोगों से 
आज आबाद है दिल्ली
कहीं अट्टालिकायें 
तो कहीं झोपडीं
गा रही है गीत 
जिन्दगी के साथी
पर अब वहीं दिल्ली से 
घर वापसी का रास्ता 
शहर की चकाचैध में बंद है साथी ।।

गांव भले ही उजड रहे हों
अपनों के ही इस वियोग से 
पर इन त्रिशंकुओं के दिलों में 
बस कर भी उजडे गाव 
आज फिर से आबाद है। 
ंवे त्रिशंकुओं को हर पल रूलाते
रह रह कर  अपने पास बुलाते 
पर त्रिशंकु आज भी बैचेन है
न शहर के बन पाये न गांव के 
शहर भी उनको बताते बेगाने
आवासी हो कर आये दिन
झेलते हैं प्रवासी का दंश
त्रिशंकु आखिर कब तक 
रहोगे न घर के न शहर के।।


-देवसिंह रावत
(9 की रात व 10 जनवरी 2014 की प्रातः 9 बजे )